भोपाल मध्य प्रदेश
मध्य प्रदेश की राजनीति में इस समय एक विचित्र प्रयोग हो रहा है। मुख्यमंत्री मोहन यादव ने कहा है वे अपने मंत्रियों और विधायकों से पिछले 20 महीने के कामकाज का हिसाब लेंगे और फिर यही रिपोर्ट केंद्र को सौंपेंगे। सतही तौर पर यह जिम्मेदारी और पारदर्शिता जैसा लगता है। लेकिन हकीकत में यह वैसा ही है जैसे कोई उल्टी गंगा बहा रहा हो। मोहन यादव भले ही कप्तान की भूमिका में हो पर जब खिलाड़ियों को खेलने का मौका ही ना मिले तो वे रन कैसे बनाएंगे या विकेट कैसे लेंगे?
प्रदेश की नौकरशाही बीते कुछ सालों से लगातार हावी है और जनप्रतिनिधियों को दरकिनार कर रही है। कलेक्टर और एसपी, विधायकों तक की बात नहीं सुनते। यह अब खबर नहीं बल्कि आम चर्चा हो गई है। हाल ही में भिंड विधायक नरेंद्र सिंह कुशवाहा और कलेक्टर संजीव श्रीवास्तव के बीच का विवाद इसका ताजा उदाहरण है। अगर इन मामलो पर विधायक ने आरोप लगाया तो पार्टी ने विधायक को तलब कर लिया और आईएएस एसोसिएशन मुख्यमंत्री के पास पहुंचकर ज्ञापन दे दिया । इससे पहले ग्वालियर की सड़कों पर मंत्री प्रद्युमन सिंह तोमर और प्रभारी मंत्री तुलसी सिलावट की बेबसी भी खुलकर सामने आई है । स्पष्ट है कि प्रदेश में विधायकों और मंत्रियों की स्थिति शायद ठीक नहीं है। बावजूद इसके मुख्यमंत्री उन्हीं से हिसाब मांगने बैठे हैं। जबकि सवाल उल्टा होना चाहिए। असल जिम्मेदारी प्रदेश अध्यक्ष की बनती है। उन्हें अपने विधायकों और मंत्रियों से यह पूछना चाहिए था कि आपके कितने काम मुख्यमंत्री मोहन यादव ने किए और कितने अभी भी लंबित पड़े हैं। आपने जनता के विकास और समस्याओं को लेकर मुख्यमंत्री को कितने पत्र लिखे और कितनों पर कारवाई हुई। यही असली समीक्षा होती और उसके बाद प्रदेश अध्यक्ष को मुख्यमंत्री से यह पूछना चाहिए कि आखिर आपने अपने ही पार्टी के विधायकों और मंत्रियों के लिए कितने काम पूरे किए और कितनी फाइलें अभी भी सीएम हाउस में दबी पड़ी है। लेकिन हो रहा है उल्टा। मुख्यमंत्री जनप्रतिनिधियों से रिपोर्ट मांग रहे हैं। यह स्थिति भाजपा की मूल कार्यप्रणाली से शायद अलग नजर आ रही है। कभी यही भाजपा थी जहां प्रदेश अध्यक्ष मुख्यमंत्री को तलब करते थे और आज हालात इतने उलट हो गए हैं कि मुख्यमंत्री खुद को केंद्र का नुमाइंदे की तरह पेश कर रहे हैं और विधायकों मंत्रियों को कटघरे में खड़ा करने का प्रयास कर रहे हैं।
यह भी याद रखना होगा कि गृह, खनिज, जनसंपर्क, वन, पर्यावरण, कृषि जैसे महत्वपूर्ण विभाग स्वयं मुख्यमंत्री के पास है और सबसे ज्यादा सवाल इन्हीं विभागों पर खड़े हैं। खाद संकट हो, किसानों पर लाठी चार्ज हो, बिगड़ी कानून व्यवस्था हो, पुलिस तबादलों का मामला हो, आदिवासियों का मुद्दा हो या खनिज परियोजनाओं की अनिमितताएं हो या फिर पर्यावरण की गिरती गुणवत्ता। यह सब मुख्यमंत्री के विभागों की ही पोल खोलते हैं।

इंदौर महापौर का हालिया पत्र भी यही दिखाता है कि कई बार लिखने और कहने के बावजूद सड़कों की हालत नहीं सुधरी। अधिकारी शायद मनमानी कर रहे हैं और विधायकों, मंत्रियों तक की सुनवाई नहीं हो रही। ऐसे में जब मुख्यमंत्री यह समीक्षा करेंगे कि पार्टी कार्यकर्ताओं के कितने काम विधायकों और मंत्रियों ने कराए तो यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि जब अधिकारी सिर्फ मुख्यमंत्री की सुनते हो तो बाकी जनप्रतिनिधि क्या कर पाएंगे। प्रदेश अध्यक्ष हेमंत खंडेलवाल को चाहिए कि वे भाजपा की मूल परंपरा और अनुशासन को बहाल करें। मुख्यमंत्री से सीधे सवाल पूछें। उन्हें जवाबदार बनाएं या जवाबदेह बनाएं। यही पार्टी की रीति नीति रही है। लेकिन मोहन यादव फिलहाल मंदिरों के उन्नयन और धार्मिक आयोजनों में शायद व्यस्त हैं। बिजली संकट, सड़कों की बदहाली, पीने के पानी की योजनाओं में भ्रष्टाचार और सैकड़ों लंबित भ्रष्टाचार पर जांच के मामलों पर अभी तक उनका कोई ठोस प्रतिक्रिया नहीं आई है। हिसाब देने की असली जिम्मेदारी मुख्यमंत्री की है ना कि मंत्रियों और विधायकों की।
मुख्यमंत्री जी, जनता और संगठन को यह आंकड़ा दीजिए कि आपके पास लंबित फाइलों और जनप्रतिनिधियों के पत्रों का क्या हाल है? कितने पत्रों पर आपके कार्यालय से त्वरित कारवाई हुई है? और कितने पत्र और सिफारिश या समस्याएं आपके कार्यालय यानी सीएम हाउस या मुख्यमंत्री कार्यालय में लंबित है। मंत्रालय के गलियारों में यह चर्चा बहुत आम है कि फलाने प्रमुख सचिव या फलाने अतिरिक्त मुख्य सचिव विभागीय मंत्री को कुछ नहीं समझते। उनकी फाइल डंब कर देते हैं। हाल ही में ऐसा ही एक मुद्दा कई एक विभाग का बड़ा चर्चित रहा। यह चर्चाएं जब आम होने लगे और नीचे तक आने लगे तो यह कहना गलत नहीं होगा कि भारतीय जनता पार्टी की सरकार में उनके विधायकों और मंत्रियों की क्या हालत होगी। ऐसे में जब उनसे पूछा जाएगा कि आपने 20 महीने में क्या काम किया? तो मुझे लगता है ज्यादातर मामलों में यही कहेंगे मुख्यमंत्री जी से कि साहब आपको चिट्ठी दी थी फला फला काम की आज तक नहीं हुआ। फला फला कार्यकर्ता ने अपने किसी रिश्तेदार के तबादले का निवेदन किया था या किसी जनता का काम था। उसके पति की समस्या थी, पत्नी की या मां-बाप की? आपके यहां फाइल अभी तक पड़ी हुई है। सड़कों की मरम्मत के लिए अधिकारियों को बोलो। तो कहते हैं कर रहे हैं पर करते नहीं हैं। विधायकों और मंत्रियों की इतनी ताकत भी नहीं बची कि चिट्ठी लिखकर किसी बड़े अधिकारी को जिले से हटवा सके ताकि जो अधिकारी बैठे वह जनता से संबंधित काम कर सके।
विधायकों का पुलिस प्रशासन के खिलाफ धरना देना, विधायकों का मंत्रियों के खिलाफ बोलना, मंत्रियों का कहना, अपने कार्यकर्ताओं से कि भाई मेरी ही नहीं चल रही है। वहीं एक मंत्री का अपने क्षेत्र में जनता से या लोगों से यह कहना कि सांसद की फोटो या नाम मेरे सामने नहीं आना चाहिए। हालात बयां करते हैं अपने आप में। ऐसे में सवाल प्रदेश अध्यक्ष हेमंत खंडेलवाल को मुख्यमंत्री मोहन यादव से पूछना चाहिए कि आखिर हो क्या रहा है और नौकरशाही इतनी नाफरमान क्यों हो रही है? वह भी जनप्रतिनिधियों से। असली समीक्षा यही होगी। बहरहाल मध्य प्रदेश की राजनीति में उल्टी गंगा जरूर बह रही है। देखना दिलचस्प होगा कि इस तरह की समीक्षा के लिए प्रदेश अध्यक्ष मुख्यमंत्री मोहन यादव को कब बुलाते हैं ।