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शनि की ढैय्या-साढ़ेसाती से बचना है? तो रोज पढ़ें ये चमत्कारी स्तोत्र

शनिवार का दिन शनि देव को समर्पित माना जाता है। हिंदू धर्म में शनि देव को न्याय का देवता कहा जाता है, जो मनुष्य को उसके अच्छे-बुरे कर्मों के अनुसार फल देते हैं। शनिवार को विशेष रूप से शनि देव की पूजा और अर्चना करने से जीवन की बाधाएं दूर होती हैं और दुर्भाग्य कम होता है।

हर शनिवार भक्त शनि मंदिर जाकर सरसों के तेल का दीपक जलाते हैं और काले तिल व तेल चढ़ाकर शनि देव को प्रसन्न करते हैं। खासकर वे लोग जिन पर शनि की साढ़ेसाती या ढैय्या चल रही होती है, उन्हें शनि देव की विशेष पूजा करनी चाहिए।

मान्यता है कि शनि की ढैय्या और साढ़ेसाती से पीड़ित जातकों को शनिवार के दिन दशरथ कृत शनि स्तोत्र का पाठ अवश्य करना चाहिए। ऐसा करने से शनि देव के अशुभ प्रभाव कम होते हैं और जीवन में शांति व सुख-समृद्धि बनी रहती है।

शनिवार के दिन दान करने का भी विशेष महत्व है। इस दिन गरीबों को काला कपड़ा, काले तिल, लोहा या सरसों का तेल दान देने से भी शनि देव की कृपा प्राप्त होती है और कष्टों से मुक्ति मिलती है।

दशरतकृत शनि स्तोत्र

दशरथ उवाच:

प्रसन्नो यदि मे सौरे ! एकश्चास्तु वरः परः॥

रोहिणीं भेदयित्वा तु न गन्तव्यं कदाचन्।
सरितः सागरा यावद्यावच्चन्द्रार्कमेदिनी॥

याचितं तु महासौरे ! नऽन्यमिच्छाम्यहं।
एवमस्तुशनिप्रोक्तं वरलब्ध्वा तु शाश्वतम्॥

प्राप्यैवं तु वरं राजा कृतकृत्योऽभवत्तदा।
पुनरेवाऽब्रवीत्तुष्टो वरं वरम् सुव्रत॥

स्तोत्र:

नम: कृष्णाय नीलाय शितिकण्ठ निभाय च।
नम: कालाग्निरूपाय कृतान्ताय च वै नम:॥1॥

नमो निर्मांस देहाय दीर्घश्मश्रुजटाय च।
नमो विशालनेत्राय शुष्कोदर भयाकृते॥2॥

नम: पुष्कलगात्राय स्थूलरोम्णेऽथ वै नम:।
नमो दीर्घाय शुष्काय कालदंष्ट्र नमोऽस्तु ते॥3॥

नमस्ते कोटराक्षाय दुर्नरीक्ष्याय वै नम:।
नमो घोराय रौद्राय भीषणाय कपालिने॥4॥

नमस्ते सर्वभक्षाय बलीमुख नमोऽस्तु ते।
सूर्यपुत्र नमस्तेऽस्तु भास्करेऽभयदाय च॥5॥

अधोदृष्टे: नमस्तेऽस्तु संवर्तक नमोऽस्तु ते।
नमो मन्दगते तुभ्यं निस्त्रिंशाय नमोऽस्तुते॥6॥

तपसा दग्ध-देहाय नित्यं योगरताय च।
नमो नित्यं क्षुधार्ताय अतृप्ताय च वै नम:॥7॥

ज्ञानचक्षुर्नमस्तेऽस्तु कश्यपात्मज-सूनवे।
तुष्टो ददासि वै राज्यं रुष्टो हरसि तत्क्षणात् ॥8॥

देवासुरमनुष्याश्च सिद्ध-विद्याधरोरगा:।
त्वया विलोकिता: सर्वे नाशं यान्ति समूलत:॥9॥

प्रसाद कुरु मे सौरे ! वारदो भव भास्करे।
एवं स्तुतस्तदा सौरिर्ग्रहराजो महाबल: ॥10॥

दशरथ उवाच:

प्रसन्नो यदि मे सौरे ! वरं देहि ममेप्सितम्।
अद्य प्रभृति-पिंगाक्ष ! पीडा देया न कस्यचित्॥

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